अब अपनी रूह के छालों का कुछ हिसाब करूँ मैं चाहता था चराग़ों को माहताब करूँ
है मेरे चारों तरफ़ भीड़ गूँगे बहरों की किसे ख़तीब बनाऊँ किसे ख़िताब करूँ
ये ज़िंदगी जो मुझे क़र्ज़दार करती है कहीं अकेले में मिल जाये तो हिसाब करूँ
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