रविवार, 17 अप्रैल 2016

Bheed Se Aaya Nikalkar

भीड़ से आया निकल कर, भीड़ में फिर खो गया!
सोचकर आया था क्या , क्या यहाँ पर हो गया
आगे बढूँ , कैसे बढूँ ? रस्ता मुझे मिलता नहीं,
अब लौटकर जाऊं कहाँ ,घर का पता भी खो गया!

ख्वाब थे आँखों में मेरी हौसले भी ताक में थे.
गर्दिशों में चाँद था पर सब सितारे साथ में थे.

मै सुबह से लेकर शामो तक शब्दों की पूजा करता था.
अगले बरस कहाँ पहुंचूंगा खुद से ये पूंछा करता था.

कैसे भूलू वो दीवारें जिनमे मैंने रातें जागी.
बिस्तर थककर सो जाता था, पर मुझको नीद कहाँ आती.

उन यारों को कैसे भूलू मै साथ में जिनके रहता था.
कैसे भूलू उस लड़की को जिसे पहला प्यार मै कहता था!

कागज के बने कटोरों में भर भर कर स्याही पी मैंने.
बस एक सुनहरे दिन के लिए कई रातें काली की मैंने!

कितनी रातें जागकर मै यहाँ आया मगर...
"सबको सोता देखकर...मै भी फिर से सो गया!!!"

चलते चलते थक चुका हू इतना... नहीं चला जाता मुझसे!
जीते जी मर चुका हू इतना...नहीं मरा जाता मुझसे...
इतना पढ़ लिखकर निकला था...पर कुछ भी काम नहीं आया!
ख्वाबों की कब्र में लेटा हू फिर भी...आराम नहीं आया...

अपने ही तीरों का आज...खुद मै घायल हो गया
"पागलों की भीड़ में मै भी पागल हो गया!"

1 टिप्पणी: